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कविता

रूह की उजली साँसों में घुला थोड़ा सा इत्र

वाज़दा ख़ान


थोड़े से शब्द बदलना चाहती हूँ जीवन के
बहुत ही उदासी से घुले हैं अर्थों में
थोड़ी सी संवेदनाएँ बदलना चाहती हूँ

रुख मोड़ना चाहती हूँ उनका
कि गिरें उपजाऊ जमीन पर
बने वहाँ तमाम जीवित रंगों के चित्र
थोड़ी सी हवा मुट्ठी में कैद करना चाहती हूँ
बना लूँ माध्यम उन्हें
अपनी आती जाती साँसों का
थोड़ी सी रेत समंदर की गहराई को
अँधेरी बावड़ी के पानी में मिलाना चाहती हूँ
कि सूरज का आगाज हो जाए
थोड़ी सी रोशनी सूरज को उतारना चाहती हूँ
आँखों में कि देह चमक जाए
रूह की उजली साँसों में घुला
थोड़ा सा इत्र पी जाना चाहती हूँ
महक भर जाए हजारों सालों की उदास साँसों में
कि रजनीगंधा के सफे़द फूलों में
लाल रंग की हमजोली बनाकर
बिछा बिछा देना चाहती हूँ
डाली पर फुदकती कोयल के लिए
कितनी अपनी लगती हो कोयल
चीखती हो बिना बात पर गुस्सा हो जाती हो
अचानक चुप हो जाती हो

चुप ही रहना
नहीं तो कोई चुरा लेगा तुम्हारे
गले की मिठास
फिर मेरे लाख चाहने पर भी
न लौट सकेगी आवाज आहट
ये मुलाकात नहीं मानी जाएगी
दो पल की किसी बेचैन सुबह की तरह।

 


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